एल्गोरिदम नए एडिटर हैं, डेमोक्रेसी नए विक्टिम हैं

इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की लड़ाई अब बोलने की स्वतंत्रता नहीं, बल्कि किसकी आवाज़ सुनी जाएगी इस पर आकर टिक गई है, क्योंकि एल्गोरिद्म तय करते हैं कि कौन सा कंटेंट दिखेगा और कौन-सा दबा दिया जाएगा.

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Information under the control of AI...Is the democratic character of the Internet ending?
Information under the control of AI...Is the democratic character of the Internet ending?

इंटरनेट को कभी दुनिया का सबसे लोकतांत्रिक मंच माना गया था. एक ऐसी वैश्विक जगह, जहां हर नागरिक अपनी बात कह सकता था. लोगों को संगठित कर सकता था और प्रभाव डाल सकता था. लेकिन यह आशावाद अब टूट चुका है. आज अभिव्यक्ति की लड़ाई इस बात पर नहीं है कि कौन बोल सकता है बल्कि इस पर है कि किसकी आवाज़ सुनी जाएगी. यह फैसला अब अदालतों या संसदों के हाथ में नहीं, बल्कि वैश्विक टेक कंपनियों के बंद कमरों में चलने वाले एल्गोरिद्म लेते हैं.

सेंसरशिप का वास्तविक हथियार क्या है?

डिजिटल युग की पहली सच्चाई साफ है. फ्री स्पीच और फ्री रीच एक जैसी चीज़ नहीं हैं. एक पोस्ट हटाई न भी जाए, तो भी उसे धीमा कर दिया जाता है, नीचे धकेल दिया जाता है या पूरी तरह अदृश्य बना दिया जाता है. एक वीडियो ऑनलाइन रहता है, लेकिन दर्शकों तक पहुंच ही नहीं पाता. आज सेंसरशिप का वास्तविक हथियार दृश्यता है, न कि हटाना. हर नागरिक एक ऐसे सिस्टम में बोल रहा है, जो यह तय करता है कि उसकी बात कितनी दूर जाएगी.

यह ताकत उन प्लेटफॉर्म्स के पास है जो तटस्थ होने का दावा करते हैं, जबकि वे अब तटस्थ नहीं रहे. पहले स्पैम रोकने के लिए बनाई गई मॉडरेशन प्रणाली अब वैचारिक फ़िल्टर की तरह काम करने लगी है. इस नए डिजिटल वातावरण को तीन शक्तियां नियंत्रित कर रही हैं- मॉडरेशन, मैनिपुलेशन और प्लेटफॉर्म न्यूट्रैलिटी का पतन.

मॉडरेशन अब तकनीकी कम और राजनीतिक निर्णय ज्यादा बन चुका है. रिएक्टिव मॉडरेशन (शिकायत के बाद कार्रवाई), प्री-एक्टिव मॉडरेशन (AI द्वारा हर पोस्ट की स्कैनिंग) और एल्गोरिद्मिक मॉडरेशन (कंटेंट को ऊपर-नीचे करना) ये सभी एक क्लिक में किसी क्रिएटर की आय खत्म कर सकते हैं या सार्वजनिक बहस का रुख बदल सकते हैं. अधिकतर उपयोगकर्ताओं को पता ही नहीं कि उनकी ऑनलाइन दुनिया कितनी इंजीनियर की हुई है.

दूसरी शक्ति है मैनिपुलेशन. गुस्सा बिकता है, विवाद क्लिक लाता है और टकराव एंगेजमेंट बढ़ाता है. फीड जनता का आईना नहीं है. यह एक ऐसा प्रभावकारी मशीन है जो प्लेटफॉर्म की कमाई के लिए बनाया गया है. सरकारें, राजनीतिक दल और हित समूह इसी संरचना का फायदा उठाकर चुनावों को प्रभावित करते हैं या आलोचना दबाते हैं. AI-आधारित व्यक्तिगत फीड हर नागरिक के लिए अलग राजनीतिक वास्तविकता बना देती है.

तीसरी शक्ति है न्यूट्रैलिटी का अंत. बड़ी टेक कंपनियां अब केवल सूचना का माध्यम नहीं, बल्कि दुनिया की सबसे शक्तिशाली संपादक बन चुकी हैं. बिना जवाबदेही, बिना पारदर्शिता और बिना सार्वजनिक अधिकार के.

वैश्विक लड़ाई के केंद्र में भारत 

भारत इस वैश्विक लड़ाई के केंद्र में है. इंटरमीडियरी नियम (2021/2023) प्लेटफॉर्म को तत्काल हटाने के आदेश मानने और संदेशों का स्रोत बताने को कहता है. डीपीडीपी कानून ने निजता का ढांचा बनाया है, लेकिन सरकार को व्यापक छूटें भी देता है. चुनावों के दौरान डीपफेक तेज़ी से बढ़ रहे हैं और इसके खिलाफ अभी कोई अलग कानून मौजूद नहीं है.

दूसरी ओर अदालतें लगभग हर सप्ताह ऑनलाइन भाषण और खाते निलंबन पर फैसले सुन रही हैं. भारत के निर्णय पूरी दुनिया के डिजिटल नियमों को प्रभावित करेंगे.

स्पष्ट है कि आज अभिव्यक्ति की लड़ाई सार्वजनिक मंच पर नहीं, बल्कि रिकमेन्डेशन एल्गोरिद्म के भीतर लड़ी जा रही है. लोकतंत्र को यदि डिजिटल युग में टिकाऊ बनाना है, तो दुनिया को एक नया सामाजिक अनुबंध चाहिए. प्लेटफॉर्म की पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिकों की शक्ति पर आधारित. जब तक यह नहीं होता, सच का फैसला एल्गोरिद्म करेंगे और उसके परिणाम लोकतंत्र भुगतेगा.

हिमांशु शेखर, ग्रुप एडिटर,उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड दैनिक भास्कर 

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